संगम साहित्य, चोल, चेर, पांड्य, शासन व्यवस्था, सामाजिक - आर्थिक - धार्मिक व्यवस्था, कला तथा स्थापत्य नोट्स। sangam sahitya - Chol - Cher - Pandya - samajik - aarthik - dharmik vyavastha kala notes in Hindi.
Table of Contents 👇
- संगम साहित्य -
- राजनितिक इतिहास -
- शासन व्यवस्था
- सामाजिक व्यवस्था
- आर्थिक व्यवस्था
- धार्मिक व्यवस्था
- कला एवं स्थापत्य
संगम साहित्य : 🔥
➤ऐतिहासिक युग के प्रारंभ में दक्षिण भारत का क्रमबद्ध इतिहास हमें जिस साहित्य से प्राप्त होता है उसे संगम साहित्य कहते हैं ।
➤इस साहित्य में दक्षिण भारत के जनजीवन की झांकी मिलती है , इस साहित्य से हमें तमि प्रदेशों के तीन राज्यों चोल , चेर एवं पांण्ड्य का विवरण प्राप्त होता है ।
➤इनमें चेर का सबसे अधिक उल्लेख है ।
➤ये सबसे प्राचीन वंश था ।
संगम शब्द का अर्थ है-
➤संघ परिषद , गोष्ठी अथवा संस्थान ।
➤ वास्तव में संगम तमिल कवियों विद्धान आचार्यो , ज्योतिषियों एवं बुद्धिजीवियों की एक परिषद थी ।
➤तमिल भाषा में लिखे गये प्राचीन साहित्य को ही संगम साहित्य कहा जाता है ।
➤ प्रत्येक कवि अथवा लेखक अपनी रचना को संगम के समझ प्रस्तुत करता था तथा इसक स्वीकृति प्राप्त हो जाने के बाद ही किसी भी रचना का प्रकाशन संभव था ।
➤संगम साहित्य की रचना कृष्णा एवं तुंगभद्रा नदियों के दक्षिण भू - भाग में स्थित प्राचीन तमिलकम प्रदेश हुई ।
➤संगम साहित्य तमिल भाषा का प्राचीनतम अंश माना गया है ।
➤संगम साहित्य की रचना की वास्तविक तिथि विवादास्पद है ।
➤इस साहित्य में वर्णित परंपराओं एवं अनुश्रुतियों के आधार पर यह साहित्य अत्यंत प्राचीन प्रती होता है , किंतु इस पर विश्वास करना कठिन है ।
➤सामान्यतः इस साहित्य का विकास ईसा की प्रथम शताब्दी से तीसरी शताब्दी ( 110-150 ई ० ) माना जाता है ।
➤इन परंपरा के अनुसार अतिप्राचीन समय में पाण्ड्य शासको के संरक्षण में कुल तीन संगम आयोजित किये गए जिनमें संकलित साहित्य को संगम साहित्य की संज्ञा दी जाती है ।
➤प्रथम संगम मदुरा में द्वितीय संगम कपाटपुरम तथा तृतीय संगम उत्तरी मदुरा में आयोजित किया गया ।
➤इन तीनों संगमों की कुल अवधि 9950 वर्ष मानी जाती जिसे 197 पाण्ड्य राजाओं ने संरक्षण प्रदान किया एवं इसमें 8598 कवियों ने साहित्यिक रचनाएं की ।
➤तीनों साहित्यों का उल्लेख 8 वीं शताब्दी के ग्रंथ इरैयनार अग्गपोरूप में हुआ है ।
➤ इस ग्रंथ के अनुसार जो विवरण प्रस्तुत होता है वह कपोलकल्पित प्रस्तुत होता है ।
➤इस पर पुरी तरह विश्वास नहीं किया जा सकता है ।
➤यह विवरण संगम साहित्य को प्राचीनता प्रदान करने के लिए दिया गया है ।
➤इस विवरण में ऐतिहासिक तथ्यों से अधिक कल्पना का सहारा लिया गया है ।
1. प्रथम संगम - 🔥
➤ आयोजन पाण्डयों की प्राचीन राजधानी मदुरा ( जो अब समुद्र में विलीन हो गया है ) में हुआ था।
➤ इसकी अध्यक्षता ऋषि अगस्त्य ने की थी ।
➤इन्हें उत्तर भारत की आर्य संस्कृति को दक्षिण में लाने का श्रेय दिय जाता है ।
➤इस संगम में 1549 विद्वानों ने भाग लिया एवं इस संगम को 89 पाण्ड्य शासको का संरक्षण प्राप्त हुआ।
➤इस संगम के कार्यकाल में 4455 विद्वानों को अपनी रचनाएं प्रकाशित करने की अनुमति दी गई ।
➤यह संगम 440 वर्षों तक चला ।
➤इसमें रचित प्रमुख ग्रंथ अकट्टियम् ( अगस्त्यम् ) परिदाल , मदुनारै मुदुकुरूकु तथा कलरि आवि आदि थे ।
➤दुर्भाग्यवश इनमें से कोई भी सम्प्रति उपलब्ध नहीं है ।
➤इस संगम में सदस्यों में प्रमुख थे -
- तिरिपुरमेरिय
- मुरूगवल
- मुदिनागरायर
2. द्वितीय संगम - 🔥
➤मदुरा के पतन के बाद पाण्ड्य शासको के संरक्षण में दुसरा संगम का आयोजन कपाटपुरम् ( अलैवाई ) किया गया ।
➤आरंभ में इसकी अध्यक्षता का श्रेय भी अगस्त्य ऋषि को जाता है किंतु बाद में इनका स्थान इनक शिष्य तोलप्पियर ने ले लिया ।
➤इस संगम में कुल 49 सदस्य ने भाग लिया ।
➤ इसे 59 पाण्ड्य शासको का संरक्षण प्राप्त हुआ ।
➤ इस संगम ने 3700 कवियों को अपनी रचना प्रकाशित करने की अनुमति प्राप्त हुई ।
➤यह संगम लगभग 3700 वर्षों तक चला ।
➤ इस संगम के दौरान रचित कुछ प्रमुख ग्रंथ- अक्कितयम् ( अगस्त्यकृत ) तोल्लकापिय मापुरानम , इसै- नुनुक्कम , भूतपुरानम् , केलि कुरुकु , वेन्दालि एवं व्यालमलय आदि थे ।
➤दुर्भाग्यवश इस संगम में रचित सिर्फ एक ही ग्रंथ- तोल्लकापियम् ' ही अवशिष्ट है जिसकी रचना अगस्त्य ऋषि के शिष्य तोल्कापियर को दिय जाता है ।
➤यह ग्रंथ तमिल भाषा का प्राचीन व्याकरण का ग्रंथ है ।
➤इसके तीन भाग है -
( क ) इलुथु वर्ग विचार काव्य विचार
( ख ) सोस
( ग ) पोरूलवस्तु
➤ऐसी मान्यता है कि प्राचीन मदुरा के समान द्वितीय संगम का केन्द्र कपाटपुरम भी समुद्र में विलीन हो गय है ।
➤विद्वानों ने उपर्युक्त दोनों संगमों की ऐतिहासिकता पर संदेह व्यक्त किया है ।
3. तृतीय संगम - 🔥
➤इस संगम का आयोजन उत्तरी मदुरा में हुआ एवं इसकी अध्यक्षता का श्रेय नक्कीरर को जाता है ।
➤यह संगम 1850 वर्षों तक चली जिसे 89 पाण्ड्य शासको का संरक्षण प्राप्त हुआ ।
➤इसमें संकलित कविताएं आज भ उपलब्ध है ।
➤इसकी संख्या 49 थी एवं इसमें 449 कवियों को उनकी रचनाओं के प्रकाशन की अनुमति प्रदान किया ।
➤इस संगम द्वारा संकलित उत्कृष्ट रचनायें- नेदुन्थोकै कुरुन्थोकै नत्रिनई एन्कुरून्नूरू पदित्रुप्पट , नूत्रैम्ब परि- पादल , कूथु , वरि , पेरिसै तथा मित्रिसै आदि है ।
➤यद्यपि इनमें से अधिकांश नष्ट हो गये हैं इसके बावजूद आज जो भी तमिल साहित्य बचा हुआ है , वह इसी संगम से संबंधित है ।
➤तोल्कापियम सहित तीसरे संगम के अवशिष् सभी ग्रंथों का संपादन तिन्नेवेल्ली की ' साउथ इंडिया शैव सिद्धांत पब्लिकेशन सोसायटी के द्वारा किया गया।
➤ तोल्लकापियम में 8 प्रकार के विवाह का उल्लेख है।
संगम साहित्य से ज्ञात राजनैतिक इतिहास :
1. चोल : 🔥
➤संगम युगीन राज्यों में सर्वाधिक शक्तिशाली चोलो का राज्य था ।
➤इसके अंतर्गत चित्तुर , उत्तरी अर्काट , मद्रास से चिंगलपुत्त तक का भाग , दक्षिणी अर्काट , तंजौर , त्रिचनापल्ली का क्षेत्र सम्मिलित था ।
➤संगम काल का सबसे प्रथम एवं महत्वपूर्ण शासक करिकाल था ।
➤इसने चेर तथा पाण्ड्य राजाओ को परास्त कर कावेरी नदी घाटी तक अपनी विजय पताका लहराया ।
➤यह ब्राह्मण मतानुयायी था तथा उसने इस धर्म को राजकीय संरक्षण भी दिया ।
➤वह स्वयं एक विद्वान , विद्वानो का आश्रयदाता , महान निर्माता , प्रजावत्सल्य के साथ एक महान विजेता भी था ।
➤पुहार पतन का निर्माण इसी के समय में हुआ ।
➤कावेरी नदी पर बांध का निर्माण इसी के समय में हुआ ।
➤कावेरी नदी पर बांध का निर्माण कर इसने सिंचाई के लिए नहरें निकलवाई ।
➤चोलो का प्रारंभिक राजधानी उरैयुर था किंतु कालांतर में कावेरीपत्तनम बन गया ।
➤करिकाल की उपलब्धियों का अत्यन्त अतिश्योक्तिपूर्ण विवरण हमें प्राप्त होता है ।
➤उसने हिमालय तक सैनिक अभियान किया तथा वज्र , मगध और अवन्ति राज्यों को जीत लिया ।
➤इसी प्रकार कुछ अनुश्रुतियों में उसकी सिंहल विजय का वृत्तान्त मिलता है ।
➤करिकाल ने सिंहल से 12000 युद्ध बन्दियों को लाकर पुहार के समुद्री बन्दरगाह के निर्माण में लगा दिया था ।
➤करिकाल के पश्चात् चोलों की शक्ति निर्बल पड़ने लगी ।
➤उसके तीन पुत्र थे - नलंगिली , नेडुमुदुक्किलि तथा मावलत्तान ।
➤इनमें नलंगिल्ली के सम्बन्ध में हमें कुछ पता है ।
➤ इस समय चोल वंश दो शाखाओं में विभक्त हो गया ।
➤नलंगिल्ली ने करिकाल के तमिल राज्य पर शासन किया ।
➤उसकी एक प्रतिद्वन्दी शाखा नेडुनगिल्ली के अधीन संगठित हो गयी ।
➤दोनों के बीच एक दीर्घकालीन गृहयुद्ध छिड़ा ।
➤अन्तोगत्वा कारियारु के युद्ध में नेडुनगिल्ली पराजित हुआ तथा मार डाला गया ।
➤इस युद्ध का विवरण मणिमेकलै में प्राप्त होता है ।
➤इन दो राजाओं का एक अन्य समकालीन कलिवलवन् था जो उरैयूर में राज्य करता था ।
➤वह एक शक्तिशाली शासक था जिसने चेरों को हराकर उनकी राजधानी करूर के ऊपर अधिकार जमा लिया ।
➤उपर्युक्त शासकों के अतिरिक्त संगम साहित्य में चोल वंश के कुछ राजाओं के नाम भी प्राप्त होते है कोप्परुन्जोलन , पेरुनरकिल्लि , कोञ्चेगणन् आदि ।
➤ इनके संबन्ध में जो विवरण सुरक्षित है , उनकी ऐतिहासिकता संदिग्ध है ।
➤ उनकी उपलब्धियाँ काव्य का विषय है , इतिहास की नहीं ।
➤संगम युगीन चोल शासकों ने तीसरी - चौथी शती तक शासन किया ।
➤तत्पश्चात् उरैयूर के चोलवंश का इतिहास अन्धकारपूर्ण हो जाता है ।
नवीं शताब्दी के मध्य विजयालय के नेतृत्व में पुनः सत्ता का उत्थान हुआ ।
2. चेर : 🔥
➤ संगम युग का दूसरा राज्य चेर था जो आधुनिक केरल में स्थित था ।
➤इसके अंतर्गत कोयम्बटूर का कुछ भाग एवं सलेम ( प्राचीन कोंगू जनपद ) भी सम्मिलित थे ।
➤इस वंश का प्रथम ऐतिहासिक शासक उदियंजीरल ( लगभग 130 ई ० ) हुआ ।
➤इसका प्रमुख एवं प्रतापी शासक सेनगुट्टवन था जो आदन के पुत्रो में से एक था ।
➤इसके यश का गान संगम युग के सुप्रसिद्ध कवि परिणर ने किया है ।
➤ वह एक वीर योद्धा के साथ - साथ कुशल सेनानायक भी था । उसके पास घोड़े , हाथी एवं नौसैनिक बेड़ा थी था ।
➤इसने अधिराज की उपाधि ग्रहण की थी ।
➤उसने पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्र के बीच अपना राज्य विस्तृत किया वह साहित्य एवं कला का उदार संरक्षक था ।
➤इसने पत्तिनी नामक धार्मिक संप्रदाय को समाज में प्रतिष्ठित किया एवं पत्तिनी देवी की पूजा प्रारंभ करवाई ।
➤चेरो की राजधानी करूयुर अथवा बाजीपुर थी ।
➤ऐसा प्रतीत होता है कि सेनगुहुवन के बाद चेरवंश कई उप - शाखाओं में बँट गया ।
➤ उसके बाद के महत्वपूर्ण चेर शासक अन्दुवन् तथा उसका पुत्र वाली आदन थे ।
➤तत्पश्चात् अय और पारि राजा बने ।
➤इन सभी ने अल्पकाल तक शासन किया ।
➤वे ब्राह्मण धर्म तथा साहित्य के संरक्षक थे ।
➤ये सभी उपशाखा के शासक प्रतीत होते हैं ।
➤चेरवंश की मुख्य शाखा में सेनगुद्रुवन का पुत्र पेरूञ्जीरल इरूमपौरै ( लग ० 190 ई ० ) शासक बना । वह महान् विजेता था ।
➤उसके विरूद्ध सामन्त अडिगैमान ने चोल तथा पाण्ड्य राजाओं को मिलाकर एक मोर्चा तैयार किया ।
➤किन्तु इरूमपौरै ने अकेले ही तीनों को पराजित कर दिया तथा तगदूर नामक किले पर अपना अधिकार जमा लिया ।
➤बाद में अडिगैमान उसका मित्र बन गया ।
➤चेरवंश का अगला राजा कडक्को इलंजीराल इरूमपोरै हुआ ।
➤उसने भी चोल तथा पाण्ड्य राजाओं के विरूद्ध सफलता प्राप्त की ।
➤ संगम काल का अन्तिम चेर शासक सेईयै ( लगभग 210 ई . ) हुआ ।
➤ उसके समकालीन पाण्ड्य शासक नेडुंजेलियन ने उसे पराजित कर चेर राज्य की स्वाधीनता का अन्त कर दिया ।
3. पाण्ड्य : 🔥
➤संगम युग का तीसरा राज्य पाण्ड्यों का था ।
➤यह राज्य कावेरी के दक्षिण में स्थित था ।
➤इसमें आधुनिक मदुरा तथा तिन्नेवल्ली के जिले और त्रावणकोर का कुछ भाग शामिल था ।
➤इसकी राजधानी मदुरा थी ।
➤संगम साहित्य में पाण्ड्य राजाओं का जो विवरण प्राप्त होता है
➤वह अत्यन्त भ्रामक है तथा उसके आधार पर हम उनके इतिहास का क्रमबद्ध विवरण नहीं जान सकते ।
➤इस वंश का प्रथम महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली राजा नेडुंजेलियन ( लगभग 210 ई ० ) हुआ ।
➤पूर्ववर्ती तीन राजाओं के नाम संगम साहित्य से ज्ञात होते हैं- नेडियोन् पलशालै, मुदुकुडमै तथा नेडुंजेलियन् ।
➤किन्तु इनके शासन काल की घटनाओं के विषय में कुछ भी पता नहीं हैं ।
➤उनका काल भी ठीक ढंग से निर्धारित कर पाना कठिन हैं ।
➤राजगद्दी प्राप्त करने के समय नेडुंन्जेलियन अल्पायू था ।
➤उसके सम्मुख एक भारी विपत्ति आई ।
➤चेर , चोल तथा पाँच अन्य राजाओं ने मिलकर उसके राज्य को जीता था राजधानी मदुरा को घेर लिया ।
➤किन्तु नेडुन्जेलियन अत्यन्त वीर तथा साहसी था ।
➤उसने अपने शत्रुओं को राजधानी से खदेड़ दिया ।
➤वह उनका पीछा करते हुए चोल राज्य की सीमा में घुस गया जहाँ तलैयालनगानमे ( तंजोर जिला ) के युद्ध में सभी को बुरी तरह परास्त किया ।
➤ चेर शासक शेय को उसने बन्दी बनाकर अपने कारागार में डाल दिया ।
➤इसके अतिरिक्त मिल्लै तथा मुतुरू नामक दो प्रदेशों पर भी उसने अधिकार कर लिया ।
➤ इस प्रकार अल्पकाल में ही उसने न केवल अपने पैतृक राज्य को सुरक्षित किया , अपितु उसका विस्तार भी कर दिया ।
➤महान् विजेता होने के साथ - साथ नेडुन्जेलियन विद्वान् तथा विद्वानों का आश्रयदाता , उदार प्रशासक एवं धर्मनिष्ठ व्यक्ति था ।
➤संगम युगीन कवियों ने उसकी उदारता एवं दानशीलता की प्रशंसा की हैं ।
➤वह वैदिक धर्म का पोषक था तथा उसने अनेक यज्ञों का अनुष्ठान करवाया था ।
➤उसकी राजधानी मदुरा तत्कालीन भारत की अत्यन्त प्रसिद्ध व्यापारिक एवं सांस्कृतिक नगरी बन गयी थी ।
➤नेडुन्जेलियन् के पश्चात् कुछ समय के लिए पाण्ड्य राज्य का इतिहास अन्धकारपूर्ण हो गया ।
➤ सातवीं शताब्दी में पाण्ड्य सत्ता का पुनः उत्कर्ष हुआ ।
शासन व्यवस्था : 🔥
➤संगमकालीन साहित्यों के अनुसार इस समय वंशानुगत राजतंत्र का ही प्रचलन था । जो ज्येष्ठता पर आधारित था ।
➤राजा का चरित्रवान , प्रजापालक , निष्पक्ष तथा संयमी होना अनिवार्य था ।
➤राजा की शक्ति सर्वोच्च होती थी । उसके अधिकार तथा शक्तियाँ असीमित थी ।
➤वह सैद्धातिक रूप से निरंकुश होते हुए भी व्यवहारिक रूप से प्रजावत्सल्य था ।
➤उसे उसके बुद्धिमान मंत्री तथा दरबारी कविगण उसे निरंकुश होने से बचाते थे ।
➤मंत्रियो को अमाइच्चार अथवा अमाइच्चर कहा जाता था ।
➤राजसभा को मनडाय कहा जाता था । जहाँ राजा द्वारा न्याय का कार्य किया जाता था ।
➤राजा अपने जीवन काल में ही युवराज का चुनाव कर देते हैं ।
➤युवराज को कोमहन तथा अन्य पुत्रों को इलेंगों कहा जाता था ।
➤राजा निःसंतान मरने पर मंत्रियो तथा प्रजा द्वारा राजा का चुनाव किया जाता था ।
➤ राजा का जन्मदिन इस युग में एक महोत्सव की तरह मनाया जाता था ।
➤राज्याभिषेक का प्रचलन नहीं था किंतु राजा के सिंहासनारूढ़ होने के समय उत्सव का आयोजन किया जाता था ।
➤दरबार में कवियों एवं विद्वानों का स्थान सम्मानजनक था ।
➤राजा अपने परामर्शदाताओं की सहायता से शासन कार्य का संचालन करते थे ।
➤ मुख्य परामर्शदाता थे पुरोहित , वैश्य , ज्योतिष एवं मंत्रीगण ।
➤परामर्शदाताओं की सभा के पंचवारक कहा जाता था ।
➤राजा शासन कार्य के संचालन में गुप्तचरों की भी सहायता लिया करता था । गुप्तचरों को ओर्टर कहा जाता था ।
➤ इस समय दंड व्यवस्था अत्यंत कठोर थी । मृत्युदंड , कारावास , आर्थिक जुर्माना आदि विविध रूपों में दंड प्रदान किये जाते थे । अपराधी को कभी - कभी भीषण यातनाएं भी जाती थी ।
➤न्यायाधीश को निष्पक्ष न्याय देने की आशा की जाती थी ।
➤राजा सबसे बड़ा न्यायाधीश होता था तथा मनडाय अर्थात् राजसभा राज्य का सबसे बड़ा न्यायालय होता था तथा मन्नरम न्याय की सबसे छोटी इकाई थी ।
➤इस युग की शासक युद्ध प्रेमी थे ।
➤वे चक्रवर्ती सम्राट बनने की आकांक्षा रखते थे ।
➤युद्ध में वीरगति पाना अत्यंत शुभ कार्य माना जाता था ।
➤राजा की सेना में पेशेवर सैनिक हीं होते थे ।
➤राजा के पास चतुरंगिणी सेना अर्थात् अश्व सेना , रथ सेना , हस्ति सेना एवं पैदल सेना होती थी ।
➤सैनिको द्वारा जिन शस्त्रों का मुख्यतया प्रयोग किया जाता था , वे थे वेल ( भाला ) , विल ( धनुष ) , कोल ( वाण ) , वाल ( खड़ग ) तथा कवच आदि ।
➤शहीद सैनिको की याद में शिविर लगाये जाते थे ।
➤वीरगति प्राप्त योद्धाओं की पाषाण मूर्तियाँ बनाकर देवताओं की तरह उनकी पूजा की जाती थी ।
➤ सेनाओं के लिए एक विशेष समारोह का आयोजन किया जाता था जिसमें सेनापतियों को एकाडि की विशेष उपाधि प्रदान की जाती थी ।
➤नगर एवं ग्राम प्रशासन की मुख्य इकाईयाँ थी , जहाँ का प्रशासन स्थानीय जनप्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता था ।
➤उर नाम की संस्था द्वारा नगर प्रशासन का संचालन किया जाता था ।
➤ग्राम प्रशासन मन्नरम , पोदइल , अम्बलय तथा अपै के निर्देशन में संभाला जाता था ।
सामाजिक व्यवस्था : 🔥
➤संगम साहित्यानुसार हमें तमिल देश की सामाजिक व्यवस्था का ज्ञान प्राप्त होता है ।
➤ इस समय तक सुदुर दक्षिण का आर्यीकरण हो चुका था ।
➤यह साहित्य हमारे सामने आर्य तथा द्रविड़ संस्कृतियों के समन्वय का चित्र प्रस्तुत करता है ।
➤प्राचीन तमिल समाज का स्वरूप मूलतः जनजातीय था परन्तु कृषि क्षेत्र धीरे - धीरे परिवर्तन हो रहा था ।
➤धीरे - धीरे पुरानी नातेदारी व्यवस्था टूट कर वैदिक वर्ण स्थापित हो रही थी किन्तु संगम युग में कहीं भी स्पष्टतः वर्ण विभाजन देखने को नहीं मिलता है ।
➤इसके बावजूद भी समाज को ब्राहमणों को सम्मान जनक स्थान प्राप्त था ।
➤इस युग में केवल ब्राह्मण ही यज्ञोपवीत धारण कर सकते थे ।
➤समाज के अन्य वर्गों के लोगों को उनके प्रातीय मूल के नाम से जाना जाता था ।
➤ पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को कुटिन्जी , समुद्रतटीय क्षेत्र के लोगों को नैइडल आदि नामों से जाना जाता था।
➤इस काल की प्रमुख जातियों के विषय में तोलकत्पियम नामक ग्रंथ में विस्तार से जानकारी दी गई हैं ।
➤इस ग्रंथ के अनुसार इस काल की प्रमुख जातियाँ थी टुडियान , परैयान , कादम्बन , पानन आदि ब्राह्मणों के अतिरिक्त संगम साहित्य में समाज के चार वर्गों में विभाजन की जानकारी मिलती है , ये चार वर्ग थे
- 1 अरसर- राजपरिवार से जुड़ा व्यक्ति शासक वर्ग
- 2 बेनिगर - वणिक वर्ग
- 3 बल्लाल - बड़े पृथक वर्ग , जो कि प्रतिष्ठित थे
- 4 बेल्लार - मजदुर कृषक वर्ग
➤संगम युग में हमें तीव्र सामाजिक विषमता का बोध होता है ।
➤धनी लोग ईट और सुरखी के मकानों में और गरीब लोग झुग्गी - झोपड़ी में रहते थे ।
➤ समाज में अश्पृश्यता तो थी किन्तु दास प्रथा नहीं थी ।
➤कुछ विशेष पेशों में आने वाले लोगों में कोल्लम ( लोहार ) तच्चन ( बढ़ई ) कवन ( नमक का व्यापारी ) कुलवा ( अनाज का व्यापारी ) , वैवानिकम ( वस्त्रों का व्यापारी ) और पोन वाणिकम ( स्वर्ण व्यापारी ) ।
➤ बाद में व्यापारी वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत आ गए ।
➤निम्न वर्गों के लोगों के स्थिति अत्यंत सामान्य थी ।
➤ इस युग में विवाह को एक संस्कार माना जाता था और प्राचीन काल के समान ही आठ प्रकार के समाज में विवाह का प्रचलन था ।
➤तमिल देश में स्त्री और पुरुष के प्रणय को पाँच तिन्नई कहा जाता था ।
➤एक पक्षीय प्रेम को कक्किन कहा जाता था ।
➤औचित्यहीन प्रेम को पेरून्दिणे कहा जाता था ।
➤संगम कालीन समाज के मातृसतात्मक होने का संकेत मिलता है ।
➤ यद्यपि उच्च वर्गों में सती प्रथा का संकेत मिलता है , इस समाज में मुरूगन की उपासना सबसे प्राचीन थी ।
➤इसकी उपासना में किया जाने वाला नृत्य बेलनाडन कहलाता था , संगम समाज में कौआ शुभ पक्षी के रूप में माना जाता था क्योंकि इसका संबंध अतिथि आगमन से था ।
➤समाज में स्त्री का स्थान पुरूषों की अपेक्षा अत्यंत निम्न / दयनीय था । कन्या का जन्म अशुभ माना जाता था ।
➤स्त्रीयों को सम्पति में कोई अधिकार नहीं था ।
➤वह शिक्षा ग्रहण करती थी , सामाजिक अनुष्ठानों में भाग लेती थी राजा के अंगरक्षक के रूप में न्युक्त होती थी ।
➤पत्नि को घर में आदरणीय स्थान प्राप्त था नृत्य करने वाली स्त्री घरेलु स्त्री के लिए अशुभ मानी जाती थी ।
➤विधवाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय थी ।
➤परिवार पितृसतात्मक था ।
➤निम्न वर्ग को स्त्रीयाँ खेतों में कम करती थी ।
➤ विधवाओं की स्थिति इतनी दयनीय थी कि वे स्वेच्छा से सती होना पसन्द करती थी ।
➤स्वैच्छिक सती का प्रचलन संगम कालीन समाज में था ।
➤ इस समाज में गणिकाओं एवं नर्तकियों के रूप में क्रमशः परत्तियर व कणिगैचर का उल्लेस मिलता है ।
➤ये वेश्यावृति द्वारा जीवनयापन करती थी ।
➤ संगम युग में समाज के सभी वर्गों में शिक्षा का प्रचलन था , जो कि तत्कालीन युग की सबसे बड़ी विशेषता थी ।
➤साहित्य , विज्ञान , गणित , व्याकरण आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी ।
➤ शिक्षकों को कणक्काटम् तथा विद्यार्थियों को पिल्लै कहा जाता था ।
➤ मंदिर शिक्षा के प्रमुख केन्द्र के तथा इस युग में गुरूदक्षिणा का प्रचलन था ।
➤चित्रकला , मूतिकला का भी विकास इस युग में हो गया था ।
➤स्त्री शिक्षा का प्रचलन भी इस समाज में था ।
➤ उच्च वर्ग की कुछ स्त्रियाँ जैसे ओवैयर एवं नच्चेलियर ने एक सफल कवयित्री के रूप में अपने को स्थापित किया ।
➤ शिकार खेलना , कुश्ती लड़ना , धूत , गोली खेलना , कविता , नाटक , नृत्य , संगीत आदि मनोरंजन के प्रमुख साधन थे ।
➤इस युग में प्रमुख वाद्य यंत्र के रूप में याल जो तारयुक्त होता था , प्रयोग किया जाता था ?
आर्थिक व्यवस्था : 🔥
➤ इस समय यह प्रदेश आर्थिक दृष्टि से अत्यंत्र समृद्ध थी ।
➤ इसकी समृद्धि का मूलाधार था - कृषि एवं व्यापार वाणिज्य ।
➤उपहार के द्वारा आर्थिक पुनर्वितरण होता था ।
➤समृद्ध और शक्तिशाली वर्ग में तीन प्रकार के लोग थे वेतर , वेलिट एवं वेल्लार ।
➤कृषि देश की आर्थिक स्थिति की मूलाधार थी ।
➤चावल , राई , गन्ना , कपास आदि की खेती की जाती थी ।
➤नदियों तथा तालाबों के द्वारा सिंचाई की व्यवस्था थी ।
➤साहित्यों में फसल काटने , अनाजों को सुखाने , गन्ने से शक्कर तैयार करने आदि का रोचक वर्णण मिलता है ।
➤किसानों को वेल्लार तथा इनके प्रमुखों को वेलिर कहा जाता था ।
➤काले तथा लाल मिट्टी के बर्तनों एवं लोहे के आविष्कार का श्रेय वेलिर लोगों को ही दिया जाता है ।
➤संगम साहित्य से पता चलता है कि समाज के निम्न वर्ग की महिलाएँ ही मुख्यतः कृषिकार्य किया करती थी जिसे कडैसिवर कहा गया हैं।
➤भूमिकर राज्य की आय का प्रमुख साधन था , जो उपज का 1/6 भाग बसूल किया जाता था ।
➤भूमिकर को कराई कहा जाता था ।
➤उस समय पारी नामक राज्य कटहल और शहद तथा चेर राज्य कटहल , काली मिर्च एवं हल्दी की खेती के लिए विख्यात थे ।
➤अन्य कर के रूप में सम्पति कर बंदरगाह कर तथा लूट के धन पर भी कर की उगाही की जाती थी ।
➤सामंतों द्वारा दिया जाने वाला कर एवं लूट द्वारा प्राप्त धन दुराई कहलाता था ।
➤आवश्यकतानुसार प्रजा से अधिक कर भी बसुला जाता था जिसे इरावु कहा जाता था ।
➤कृषि के अतिरिक्त कपड़ा बुनना प्रमुख उद्योग था उरैयार तथा मदुरई वस्त्र उद्योग के प्रमुख केन्द्र थे।
➤वस्त्र उद्योग के अतिरिक्त रस्सी बाँटना , हाथी दांत की वस्तुएँ बनाना , जहाज निर्माण , सोने के आभूषण बनाना तथा समुद्र से मोती निकालने का कार्य भी किया जाता था , जो राज्य के आर्थिक आधार को सशक्त बनाता था ।
➤इस समय आंतरिक तथा बाह्रय व्यापार की दशा उन्नत थी ।
➤आंतरिक व्यापार मुख्यतया वस्तु विनिमय के द्वारा होता था ।
➤वस्तु विनियम प्रणाली में ऋण व्यवस्था नहीं किसी वस्तु के बदले निश्चित ऋण प्राप्त किया जा सकता था किंतु उसे उसी मात्रा में लौटाया भी जाना था । यह प्रथा कुरीटिरपरई कहलाती थी ।
➤धान और नमक दो ही ऐसी वस्तु थी , जिसकी निश्चित विनिमय दर थी । धान की समान मात्रा के बराबर नमक दिया जाता था ।
➤ जिस मार्ग से व्यापार होती थी वह गंगा घाटी से गोदावरी घाटी तक जाता था । यह मार्ग दक्षिणापथ के नाम से माना जाता है । कौटिल्य ने दक्षिण मार्ग को अनेक नाम गिनाएँ हैं ।
➤उत्तर और दक्षिण के बीच अधिकांश व्यापार के मुधे भोग - विलास की वस्तुएँ थी जैसे स्वर्ण , मोती , अन्य रत्न आदि ।
➤उत्तम वस्त्रों के साथ - साथ उत्तरी काली मृदभांड जो सुदूर दक्षिण में लोकप्रिय था , का भी व्यापार होता था ।
➤पेरीप्लस के अनुसार टिंडिस , मुजरिस , नेलसिंडा आदि पश्चिमी समुद्रतट पर महत्वपूर्ण बंदरगाह थे ।
➤पेरीप्लस अरगूडु या उरैयुर नामक स्थान पर अरगटिक नामक मलमल का निर्यात होता था ।
➤इस समय तमिल देश का व्यापार पश्चिम में मिस्त्र तथा अरब के यूनानी राज्य से तथा पूर्व में मलय द्वीप - समूह तथा चीन के साथ होता था |
➤कालीमिर्च , हाथीदाँत , मोती मलमल , रेशम आदि प्रचुर मात्रा में यहाँ मिलते थे जिनकी माँग पश्चिमी देशों में काफी थी ।
➤चोल राज्य में पुहार ( कावेरीपत्तनम ) पाण्ड्य युग में शालीयूर और चेर राज्य में बंदर नामक प्रमुख बंदरगाह थे ।
➤चेरों की प्राचीन राजधानी करूयुर ( बंजीपुर ) से रोमन समाग्री प्राप्त होती है ।
➤मुजरिस में रोमन सम्राट अगस्त्य का मंदिर रोमनों के द्वारा बनाया गया था जो विदेशी व्यापार का संकेत अर्थात् विदेशियों से संपर्क का संकेत देते हैं ।
➤ विरूक्काम्पालिया नामक स्थान चोल , चेर एवं पांण्ड्य राज्य के संगम स्थल के रूप हैं ।
➤इस समय व्यापारिक ( स्थल मार्ग ) कारवां का नेतृत्व करने वाले सार्थवाह को वासातुस्वा एवं समुद्री सार्थवाह मानानिकम कहा जाता था ।
➤व्यापारिक गतिविधि में सिक्को के प्रमाण भी मिले है ।
➤ इस समय तमिल साहित्यों के अनुसार काशु कनम , पोन और बेनपोन आदि सिक्के की जानकारी मिलती है ।
➤आहत सिक्के भी प्राप्त होते है , दश्तकारों को अपने उत्पादों पर शुल्क देना पड़ता था जिसे कारूकारा कहा जाता था , भूमि निर्वतन के अनुसर मापी जाती थी ।
➤सुदुर दक्षिण में मा और वेली भूमि के माप थे ।
➤यहाँ कर देने के लिए अनाज को अम्बानम् में तौला जाता था । संभवतः यह बड़ा तौल था ।
➤छोटे तौल के रूप में नालि उलाकू और अलाक प्रचलित थे ।
धार्मिक व्यवस्था : 🔥
➤ इस युग ब्राह्मण अथवा वैदिक धर्म का प्रचलन दिखाई देता है ।
➤अनुश्रुतियों के अनुसार दक्षिण में वैदिक संस्कृति को उत्तर भारत ले जाने का श्रेय अगस्त्य ऋषि को दिया जाता है ।
➤आज भी दक्षिण में अगस्त्य पूजा का व्यापक रूप से प्रचलन है ।
➤साथ ही साथ कौंडिन्य ऋषि का भी दक्षिण से पर्याप्त संबंध रहा है ।
➤यहाँ के अनेक मंदिर अगस्तेश्वर नाम से प्रसिद्ध है जहाँ शिव की मूर्तियाँ स्थापित है ।
➤एक परंपरा के अनुसार पाण्ड्य राजवंश के पुरोहित अगस्त्य वंश के पुरोहित होते थे ।
➤ ऐसा ही एक परंपरा अनुश्रुतियों के अनुसार तमिल भाषा तथा व्याकरण की उत्पति अगस्त्य ऋषि ने की ।
➤ महाभारत एवं पुराणा में भी दक्षिण में कृषि के विस्तार से अगस्त्य का संबंध जोड़ा जाता है ।
➤ दक्षिण भारत में सबसे प्रमुख देवता मुरूगन थे ।
➤बाद में इनका नाम सुब्रमण्यम हो गया और स्कन्द कार्त्तिकेय से इस देवता का एकीकरण हो गया ।
➤ मुरूगन का एक अन्य नाम बेल्लन भी है जिसका संबंध बेल से है ।
➤यह इस देवता का प्रमुख अस्त्र था ।
➤जैनधर्म तथा बौद्ध धर्म का समाज में नाम मात्र ही प्रचलन था ।
➤इस समय मुख्य उपास्प देवता थे – विष्णु शिव , श्री कृष्ण , बलराम आदि इसके अतिरिक्त वीर पूजा तथा सतीपूजा का भी प्रचलन था ।
➤किसान लोग मरूडम ( इन्द्र ) की पूजा करते थे ।
➤ पुहार के वार्षिक उत्सव में इन्द्र की विशेष प्रकार की पूजा होती है , कौईलै विजय की देवी थी ।
➤ स्कंद कार्त्तिकेय को शिव - पार्वती के पुत्र के रूप में माना जाता है , तमिल प्रदेश में मुरूगन का प्रतीक मूर्गा ( कुक्कुट ) को माना गया है जिसे पर्वत शिखर पर कीड़ा करना पसन्द है ।
➤ इस काल में बलि प्रथा का भी प्रचलन था ।
➤देवताओं की पूजा अर्चना के लिए मंदिरों की व्यवस्था थी , जिन्हें नागर , कोट्टम , पुराई या कोसी कहा जाता था ।
➤ यद्यपि मंदिर अपने अस्तित्व में थे तथापि धार्मिक कार्यो का अधिकांशतः आयोजन खुले वृक्षों के नीचे किया जाता था ।
कला एवं स्थापत्य : 🔥
➤ संगम साहित्य से तमिल प्रदेश में कला एवं स्थापत्य के विकास के विषय में भी कुछ जानकारी मिलती है ।
➤धनी वर्गों के घर ईंट और चूने से बनाए जाते थे , जबकि निर्धन वर्ग फूस की झोंपड़ियों में रहता था ।
➤दीवारों पर सुंदर भित्ति चित्र बनाए जाते थे ।
➤ नगर - निर्माण सुनियोजित ढंग से होता था ।
➤नगर - निर्माण की प्रचलित परंपराओं का पालन किया जाता था ।
➤नगरों की सुरक्षा के लिए प्राचीर का निर्माण किया जाता था ।
➤उसके चारों ओर गहरी खाइयाँ खोदी जाती थीं ।
➤पुहार नगर का विशद् वर्णन संगम साहित्य में मिलता है ।
➤नगर दो भागों में बसा हुआ था ।
➤समुद्रतटीय भाग में व्यापारियों , कारीगरों तथा यवनों की बस्तियाँ , दुकाने एवं बाजारें थीं ।
➤नगर के भीतरी भाग में सुंदर आलीशन , उद्यानों से घिरे महल सदृश मकान थे ।
➤वातायनों , शयनागारों , गलियारों , तोरण द्वारों के निर्माण पर विशेष ध्यान दिया जाता था ।
➤मंदिर एवं बलि- वेदियाँ भी बनाई जाती थीं ।
➤ललित कलाओं और दस्तकारी के विकास पर भी पर्याप्त ध्यान दया गया ।
➤इस प्रकार संगम साहित्य सुदूर दक्षिण के आरंभिक इतिहास और संस्कृति पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता हैं ।
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Ancient Indian History